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छू पाओ तो / मधु प्रधान
Kavita Kosh से
छू पाओ तो
मन को छू लो
उन्मन मन नीरिल नयनों में
मदिर फागुनी धूप खिलेगी
अनायास ही महक उठेगा
मन सपनों में गन्ध घुलेगी
भावों के
उन्मुक्त गगन में
डोल सको पँछी से डोलो
छू पाओ तो
मन को छू लो
तन मिट्टी का एक खिलौना
इसको पाया तो क्या पाया
नदी रेत की मृग की तृष्णा
छाया केवल, छाया, छाया
प्राणों की
शाश्वत वीणा पर
घोल सको अमृत स्वर घोलो
छू पाओ तो
मन को छू लो