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छोटी-छोटी बिखरी है दुनिया बहुत / अमरेन्द्र

छोटी-छोटी बिखरी है दुनिया बहुत
और सब में दुख ही दुख पाया बहुत

बचके निकला काँटों से हर बार मैं
मुझको फूलों ने ही उलझाया बहुत

मैं जिसे था ढूँढता वह था कहाँ
यूं तो उसने फोटो दिखलाया बहुत

भर गई इक बूँद है मुझको कभी
जब नदी ने ही रखा प्यासा बहुत

क्यों डरा जाता मुझे भय रात का
हैं जहाँ अमराइयाँ-छाया बहुत

ब्रह्म है गायब यहाँ सबसे जुदा
हर कदम पर है लगी माया बहुत

पूछिए जिससे कहेगा कुछ न कुछ
आम है अमरेन्द्र का किस्सा बहुत।