छोटी सी बात / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
नारी,
तुम्हारा सौन्दर्य,
मानो अतीत का हो कोई दान।
मध्य सागर के काले तरंग
अशोक के स्पष्ट आह्वाहन सा
जैसे लिए जा रहे हों हमें खींच कर
शांति – संघ – धर्म – निर्वाण की ओर
या फिर
तुम्हारे स्निग्ध मुख मंडल के आभा की ओर।
अनेकों सागरों की यात्रा से थक कर चूर,
उस डूबते अंधकार में, देखा था तुम्हें मैंने
लिए हाथों में एक दीप;
सैंकड़ों साल पहले यूँ तो मर चुका था समय
पर तुम खड़ी हो अभी तक...
जो हो चुका, जो हो रहा, जो भी होगा
उस स्निग्ध मालती के सौरभ से कम नहीं।
कितनी ही सभ्यताओं ने बदली करवट;
कितने ही संकल्प, कितने ही स्वप्न, कितने ही उद्यम
धीरे धीरे ही सही, पर दम तोड़ चुके
बड़े-बड़े महानगरों की वीथिकाओं पर!
तब भी नदी रही स्निग्ध प्रवाहमान
तब भी कम नहीं हुआ सूर्य का आलोक;
आई गई कई राधिकाएं
आज भी नारी माने तुम ही हो।