छोटी से बड़ी हुई तरूओं की छायाएँ / किशन सरोज
छोटी से बड़ी हुई तरूओं की छायाएँ
धुँधलाईँ सूरज के माथे की रेखाएँ
मत बाँधो आँचल में फूल, चलो लौट चलेँ,
वह देखो! कुहरे में चन्दन-वन डूब गया।
माना सहमी गलियों में न रहा जायेगा
साँसों का भारीपन भी न सहा जायेगा
किन्तु विवशता यह, यदि अपनों की बात चली
काँपेँगे अधर और कुछ न कहा जायेगा।
वह देखो! मँदिर वाले वट के पेड़ तले
जाने किन हाथोँ से दो मँगल-दीप जले
और हमारे आगे अँधियारे सागर में
अपने ही मन-जैसा नीलगगन डूब गया
कौन कर सका बन्दी, रोशनी निगाहों में?
कौन रोक पाया है गन्ध बीच राहों में?
हर जाती सन्ध्या की अपनी मजबूरी है
कौन बाँध पाया है इन्द्रधनुष बाँहों में?
सोने-से दिन, चाँदी जैसी हर रात गई
काहे का रोना, जो बीती सो बात गई
मत लाओ नैनो में नीर, कौन समझेगा?
एक बूंद पानी में एक वचन डूब गया!
भावुकता के कैसे केश सँवारे जायें
कैसे इन घडियाोँ के चित्र उतारे जायें?
लगता है मन की आकुलता का अर्थ यही
आगत के द्वारे हम हाथ पसारे जायें।
दाह छिपाने को अब हर पल गाना होगा
हँसने वालों में रहकर मुस्काना होगा
घूँघट की ओट किसे होगा सन्देह कभी
रतनारे नयनों में एक सपन डूब गया!