भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छोड़कर नीले गगन को आ रही है चाँदनी / राम नाथ बेख़बर
Kavita Kosh से
छोड़कर नीले गगन को आ रही है चाँदनी
खेत पोखर के दिलों को भा रही है चाँदनी।
हम शरद की रात की ही बात करते रह गए
क़ह्र फिर आकर दिलों पर ढ़ा रही है चाँदनी।
इक झरोखे से निकल सिहरन भरी इस रात में
सेज पर चुपके से बिछकर जा रही है चाँदनी।
शोख़ चंचल चुलबुली है हर अदा में बाँकपन
पत्र टहनी कास वन पर छा रही है चाँदनी।
बेख़बर थे हम जगत में यार तेरे प्यार से
हाँ, मग़र कुछ आज कल बहका रही है चाँदनी।