छोड़ना / प्रेमरंजन अनिमेष
अंधेरे में ही टटोलीं उसने चप्पलें
हाथ में ली औचक बत्ती
और सँकरी सीढ़ियाँ दिखाते
उतरा मुझे छोड़ने
छोड़ खुले दरवाजे
मेरे बहुत आगे
अपने बहुत पीछे
तक की बातें
करता चलता गया
संकोच से भरा सोचता रहा मैं
जहाँ तक जायेगा छोड़ने
वहाँ से लौटना होगा उसे अकेले
आधी राह तक आया वह
इससे आगे जाना
संदेह भरता
कि होगा कहीं कोई हित जरूर उसका
अपना लौटना रखा
जितनी रह गयी थी मेरी राह
उससे छूट कर
इससे बढ़कर
क्या होगा निभाव
घूँघट की ओट तक
छोड़ता
कोई चौखट तक
गली नगर सीवान पलकों के अनंत अपार
पास के तट तो कोई मरघट तक
रहता देता साथ
उतनी बड़ी ज़िंदगी
कोई अपना देखता जितनी देर
जाते हुए किसी को अपने आगे
उतना ही बड़ा आदमी
छोड़ता जो किसी को जितनी दूर
और बस्ती उतनी ही बड़ी
जहाँ तक लोग लोगों को
लाने छोड़ने जाते
कौन मगर इस भीड़ में
मिलता किसी से
अब कहाँ कोई छोड़ता किसी को
जबकि छोड़ना भी शामिल है यात्राओं में
गौर करें तो हम सब की यात्रायें
छोड़ने की
यात्रायें हैं
न छोड़ो तब भी
एक एक कर सब छूटते जाते
और कहीं पहुँच कर हम पाते
कि अपना आप ही नहीं साथ
वह भी कहीं
छूट गया ...
तब पता चलता
कई बार तो तब भी नहीं
कि यात्रा अपनी
दरअसल यात्रा अपने को छोड़ने की
छोड़ें अगर किसी को
तो इस तरह
जैसे जाते हुए बहुत अपने को
छोड़ते हैं
प्यार से
साथ जाकर
देर तक
और दूर तक ...
ख़ैर छोड़ो
अब जाने दो यह बात
मैं तुम्हें और तुम मुझे
इस ओस भींगे आधे चाँद की रात
छोड़ते रहे तासहर
जब तक एक न हो जायें
अपने ऑंगन अपने घर