भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छोड़े हुए गो उसको हुए है / साग़र पालमपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छोड़े हुए गो उसको हुए है बरस कई

लेकिन वो अपने गाँव को भूला नहीं अभी


वो मदरिसे,वो बाग़, वो गलियाँ ,वो रास्ते

मंज़र वो उसके ज़ेह्न पे हैं नक़्श आज भी


मिलते थे भाई भाई से, इक—दूसरे से लोग

होली की धूम— धाम हो या ईद की ख़ुशी


मज़हब का था सवाल न थी ज़ात की तमीज़

मिल—जुल के इत्तिफ़ाक से कटती थी ज़िन्दगी


लाया था शहर में उसे रोज़ी का मसअला

फिर बन के रह गया वही ज़ंजीर पाँओं की


है कितनी बेलिहाज़ फ़िज़ा शह्र की जहाँ

ना—आशना हैं दोस्त तो हमसाये अजनबी


माना हज़ारों खेल तमाशे हैं शह्र में

‘साग़र’! है अपने गाँव की कुछ बात और ही