छोड़ आया हूँ / गौरव गिरिजा शुक्ला
मैं आज अपना घर छोड़ आया हूँ,
धूप में निकला हूं मगर साया छोड़ आया हूँ।
आंधियां भी देखेंगी मेरे हौसले की ताक़त,
टूटे हुए मकान में जलता चिराग छोड़ आया हूँ।
दुनिया की नज़रों में हम जुदा हो गए लेकिन
मैं तेरे-मेरे दरमियां सारी दीवारें तोड़ आया हूँ।
इज्ज़त-शोहरत, मोहब्बत-वफ़ा की ख़्वाहिश नहीं,
दिल के जज़्बात, बहुत पीछे छोड़ आया हूँ।
किसे फ़र्क पड़ता है किस हाल में जी रहा हूँ मैं,
जब तू नहीं तो सबसे रिश्ते तोड़ आया हूँ।
मेरी आशिक़ी के अफ़साने बड़े शौक से पढ़ेंगे दुनिया वाले
मैं अपने कमरे में तेरे ख़त छोड़ आया हूँ।
तकदीर भी हैरान है मेरा मिज़ाज देखकर,
मंज़िल के करीब आकर अपनी राहें मोड़ आया हूँ।
टूटे दिल में सैलाब है, आंखों में समंदर है लेकिन,
ख़ामोश लबों पर मुस्कुराहट का लिबास ओढ़ आया हूँ।
दुश्मनों के खेमे में जश्न तो है मगर वो रौनक नहीं,
ख़बर उन्हें भी है, मैं जीती हुई बाजी छोड़ आया हूँ।