भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छोड़ चली क्यों साथ / विष्णु सक्सेना
Kavita Kosh से
छोड़ चली क्यों साथ सखी री?
इसीलिए हमसे रचवाए क्या मेंहदी से हाथ सखी री!
गुमसुम होगी कल ये देहरी,
सिसकेगा घर का अंगना।
रोएँगी गुलशन की कलियाँ,
हिलकी-भर रोयें कंगना।
सूरज खाने को दौड़ेगा, डसे चंदनिया रात सखी री।
जिनके संग पंचगोटी खेली,
जिनके संग गुड्डा-गुड़िया।
कोई कहे मेरे बाग की बुलबुल,
कोई मैना, कोई चिड़िया।
जिस गोदी में खेली-कूदी, छूटे वे पितु-मात सखी री!
भइया याद दिलाए राखी,
भाभी होली फागुन की।
जब पीहर से जाए तू, माँ-
याद दिलाए सावन की।
सबके दिल दरपन जैसे हैं, देना ना आघात सखी री!
जा री जा, तेरे दामन में-
खुशियाँ हों दुनिया-भर की,
जैसे लाज रखी इस घर की-
वैसे रखना उस घर की
शुभ हो तुझे नया घर, लो जा खुशियों की सौग़ात सखी री!