भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगलों में जुस्तुजू-ए-कैस-ए-सहराई करूँ / मिर्ज़ा मोहम्मद तकी 'हवस'
Kavita Kosh से
जंगलों में जुस्तुजू-ए-कैस-ए-सहराई करूँ
कब तलक ढूँडूँ कहाँ तक जादा-पैमाई करूँ
गर कोई माने न हो वाँ सजदा करने का मुझे
आस्तान-ए-यार पर बरसों जबीं-साई करूँ
बज़्म-ए-हस्ती में नहीं जुज़ बे-कसी अपना रफ़ीक
किस की ख़ातिर दोस्तों मैं महफ़िल-आराई करूँ
ग़ारत-ए-दिल का जो करता है इरादा तर्क-ए-चश्म
ग़म्ज़ा कहता है मैं ताराज-ए-शकेबाई करूँ
ले गए जब तेरे दीवाने को ईसा ने कहा
हर घड़ी मैं क्या इलाज-ए-मर्द-ए-सौदाई करूँ
आश्ना कोई नज़र आता नहीं याँ ऐ ‘हवस’
किस को मैं अपना अनीस-ए-कुंज-ए-तन्हाई करूँ