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जंगल-1 / कीर्त्तिनारायण मिश्र
Kavita Kosh से
किसी अनजानी जगह में
कोई अनजाना
किससे राह पूछे
जहाँ सबको अपनी-अपनी पड़ी हो
वहाँ कौन किसकी बात सुने
यहाँ सबने सीखी हुई है बन्द रहने की कला
'हाय-हलो' वाले कैसे पूरा खुलें भला
नपी-तुली-सधी मुस्कुराहटें
और हिलते हाथ
कब तक दें साथ
जहाँ हर कोई अकेला हो
किसी को किसी की न हो ख़बर
जहाँ अन्तर के तारों पर बजते हों
अलग-अलग स्वर
वहाँ भी
पौधे, बौर, वृक्ष, फूल और कलियाँ
जंगल और झरने, जलचर और नदियाँ
सुनाते रहते हैं अविराम
पर्वत को 'साम'
खुलता रहता है अनायास सबका ताना-बाना
राह पा लेता है हर भूला-भटका अनजाना ।