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जंगल उगने लगे / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
काली आँधी है लाल दिशाओं में
लो, जंगल उगने लगे है निगाहों में
गेरू के चित्र-रची दीवारों पर
गिर गया अंधेरा रोशनदानों से
दहशत डूबी संध्या का सन्नाटा
बोलने लगा सहमे दालानों से
फिर खड़ी तर्जनी मुँह तक आई है
खामोशी बिन्धने लगी कराहों में
चाँदी के फूल खिली आधी रातें
दीवाने आसेबों की हो बैठीं
लोहे की घाटी में उतरी राहें
अपना हर पारस पत्थर खो बैठीं
वह दुआ मान की दरगाहों से
जो मातम छाने लगा निकाह में
शोले बस्ती ने गोद ले लिए हैं
वे ज़हरीली फुलझड़ियाँ छूट गई
बहकी तितलियाँ स्वप्न पंखों वाली
अंगड़ाती हुई शिलायें टूट गई
फिर से ज्वालामुखियों के पते मिले
गुमसुम लोगो के अन्तर्दाहो में