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जंगल कपड़े बदल रहा है / अनिरुद्ध नीरव
Kavita Kosh से
सारा जंगल
कपड़े बदल रहा है
कोई जलसा
हफ़्तों चल रहा है
इनके कपड़े
वसन्त ने सिले हैं
शेड्स रंगों के
सूर्य से मिले हैं
फ़िट कुछ इतने
बदन-बदन खिले हैं
मैं भी पहनूँ
ये मन मचल रहा है
मैं भी बढ़िया
हरी कमीज़ लाकर
उसको पहना
अपने को कुछ लगा कर
पेड़ देखे
हँसने लगे ठठाकर
कोई नकली
असली में खल रहा है
तब मैं समझा
सुना भी था बड़ों से
ये हरियाली
मिलती न टेलरों से
कोई रस है
आता है जो जड़ों से
मेरे नीचे
मार्बल फिसल रहा है ।