जंगल बनाम जंगल / कुमार विकल
मैं इस इमारत के नीचे से नहीं गुज़रूँगा
इस इमारत में एक काला गैंडा रहता है
जो मेरे शरीर की गंध पा कर बाहर निकल आएगा.
मैं उससे बचने के लिए भागूँगा
बेतहाशा दौड़ूँगा
एक इमारत से दूसरी इमारत तक
एक नगर से दूसरे नगर तक.
सच लितना अजीब लगता है
जब आदमी
शहरी इमारतों से भाग कर जंगल की ओर जाता है.
किंतु यह भी सच है
कि सरकारी इमारतों में जो जंगल उग रहे हैं
उनमें पुराने जंगलों से कहीं अधिक दहशत है.
और यह भी सच है
कि इन जंगलों में काले गैंडों की एक नस्ल पैदा हो रही है
और नई तरह के नरभक्षी वृक्ष उग रहे हैं
जो आदमी को अपनी लपेट में नहीं लेते
बल्कि जिनकी दहशत से रक्तचाप बढ़ जाती है
‘ब्रेन—हेम्रेज’ होते हैं
और हृदयगति रुक जाती है.
एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल की ओर
सरकती हुई लिफ़्ट अचानक रुक जाती है.
मुझे हर हाल में इस लिफ़्ट से बाहर रहना है
और अपनी देह को उस हत्या से बचाना है
जिसके बाद आदमी फ़ाइलों के धर्म तो निभाता
किंतु उसकी देह का हर धर्म छूट जाता है
बहुत कुछ याद रहता है
सिर्फ़ अपना नाम भूल जाता है
नहीं मैं इमारत के निकट से नहीं गुज़रुँगा.