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जंगल में कभी जो घर बनाऊँ / सरवत हुसैन
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जंगल में कभी जो घर बनाऊँ
उस मोर को हम-शजर बनाऊँ
बहते जाते हैं आईने सब
मैं भी तो कोई भँवर बनाऊँ
दूरी है बस एक फ़ैसले की
पतवार चुनूँ कि पर बनाऊँ
बहती हुई आग़ से परिंदा
बाँहों में समेट कर बनाऊँ
घर सौंप दूँ गर्द-ए-रहगुज़र को
दहलीज़ को हम-सफ़र बनाऊँ
हो फ़ुर्सत-ए-ख़्वाब जो मयस्सर
इक और ही बहर ओ बर बनाऊँ