भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगल में दीवाली / गिरीश पंकज
Kavita Kosh से
जंगल मे दीवाली के दिन,
होते रहे धमाके ।
सभी जानवरों ने मिलजुल कर,
फोड़े खूब पटाखे ।।
लेकिन हाथी दादा सबसे,
अलग-थलग थे उस रोज़ ।
उड़ा रहे थे, भालू के घर,
अहा, चटपटा भोज ।
सभी जानवर बोले -- दादा,
बहुत ग़लत है बात ।
जंगल का अनुशासन तोड़ा,
दिया न सबका साथ ।।
हाथी दादा मुस्काये तब,
बोले आकर पास ।
मुझे न भाता धुआँ और ये
शोर-शराबा खास ।
ये पैसों की है बर्बादी,
होती नष्ट कमाई ।
इससे अच्छा भरपेट तुम,
खाओ ढेर मिठाई ।
ख़ुद भी खाओ औऱ सभी को,
बाँटो ख़ुशियाँ सारी।
तभी मनेगी दीवाली फिर,
सचमुच प्यारी-प्यारी ।