भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगल से जलते बुझते नगर / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
जंगल से जलते बुझते नगर, मेरे नाम क्यूं
मुम्किन नहीं है फिर भी मफर, मेरे नाम क्यूं
अय्याम जिस में रहते हों आसेब की तरह
ख्वाबों के खाक-खाक खण्डर, मेरे नाम क्यूं
हमसाये में हजर, न कही साय-ए-शजर
जामिद जनम जनम का सफर, मेरे नाम क्यूं
मफरूर मुल्जिमों-सा मसाफत में महृ हूं
काले समुन्दरों का सफर, मेरे नाम क्यूं
शोले की आरजू में करूं रक्स उम्र भर
उस ने किया लिबासे-षरर, मेरे नाम क्यूं