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जगत के सहारे-सहारे चलूँ क्यों? / बलबीर सिंह 'रंग'

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जगत के सहारे-सहारे चलूँ क्यों?

न मैं हूँ जगत का न मेरा जगत है,
जगत ने बना रक्खा कुछ ऐसा मत है;
जो जिसको लगा प्रिय उसी में वह रत है,
तो मैं अपने अरमान मारे चलूँ क्यों?
जगत के सहारे-सहारे चलूँ क्यों?

न आनन्द मिलन जाप जपने में मुझको,
न आनन्द विरह ताप तपने में मुझको;
हुआ प्राप्त आनन्द अपने में मुझको,
तो आनन्द अपना विसारे चलूँ क्यों?
जगत के सहारे-सहारे चलूँ क्यों?

न सुख पाके मन मेरा बाँसों उछलता,
न दुख का समय मुझको किंचित है खलता;
न वैभव मनुज का निरख के मैं जलता,
मनुज मैं भी तो हूँ मनुज से जलूँ क्यों?
जगत के सहारे-सहारे चलूँ क्यों?

न मैं पास जग के स्वयं जा सका,
औ’ निकट अपने जग को नहीं ला सका;
मैं जगत में न आशा किरण पा सका,
तो निराशा नदी के सहारे चलूँ क्यों
जगत के सहारे-सहारे चलूँ क्यों?