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जगत युगों से हो रही जमा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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जगत युगों से हो रही जमा
सुतीव्र अक्षमा।
अगोचर में कहीं भी एक रेखा की होते ही भूल
दीर्घ काल में अकस्मात् करती वह अपने को निर्मूल।
नींव जिसकी चिरस्थायी समझ रखी थी मन में
नीचे उसके हो उठता है भूकम्प प्रलय-नर्तन में।
प्राणी कितने ही आये थे बाँध के अपना दल
जीवन की रंगभूमि पर
अपर्याप्त शक्ति का लेकर सम्बल-
वह शक्ति ही है भ्रम उसका,
क्रमशः असह्य हो लुप्त कर देती महाभार को।
कोई नहीं जानता,
इस विश्व में कहाँ हो रही जमा
प्रचण्ड अक्षमा।
दृष्टि की अतीत त्रुटियों का कर भेदन
सम्बन्ध के दृढ़ सूत्र को वह कर रही छेदन;
इंगित के स्फुलिंगों का भ्रम
पीछे लौटने का पथ सदा को कर रहा दुर्गम।
प्रचण्ड तोड़-फोड़ चालू है पूर्ण के ही आदेश से;
कैसी अपूर्व सृष्टि उसकी दिखाई देगी शेष में-
चूर्ण होगी अबाध्य मिट्टी, बाधा होगी दूर,
ले-लेकर नूतन प्राण उठेंगे अंकूर।
हे अक्षमा,
सृष्टि विधान में तुम्हीं तो हो शक्ति परमा;
शान्ति-पथ के कांटे हैं तुम्हारे पद पात में
विदलित होते हैं बार-बार आघात-आघात में।

कलकत्ता
13 नवम्बर, 1940