जगमगाती रोशनियों से दूर अँधेरों से घिरा आदमी / निर्मला पुतुल
चारों ओर जगमगाती रोशनियाँ हैं
और उन जगमगाती रोशनियों के बीच हँसती हुई ऊँची-ऊँची इमारते हैं
और उन इमारतों में हँसते हुए लोग हैं
जहाँ देखो उधर रोशनी ही रोशनी है
और उन जगमगाती रोशनियों से दूर
शहर के आख़िरी छोर पर झुग्गी-झोपडियाँ हैं
जहाँ टिमटिमाते हुए कुछ दिए जल रहे हैं
दिए की लौ लगातार लड़ रही है अँधेरों से
और अँधेरा है कि भागने का नाम नहीं ले रहा है
अँधेरो से घिरी झोपडियों में बैठा आदमी
देख रहा है दिए को अँधेरे से लड़ते
अजीब विडम्बना है
एक अँधेरा बाहर है
जो उसे चारों ओर से घेरे है
और दूसरा उसके भीतर का अँधेरा है
जो वर्षों से दूर नहीं हो रहा है
अँधेरो से घिरा आदमी लगातार लड़ रहा है
अपने बाहर और भीतर के अंधेरों से
और सामने रोशनी से नहाई अट्टालिकाएँ हैं
जो बरसों से हँस रही हैं ।