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जगमगाते जुगनुओं के काफिले हैं / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'

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जगमगाते जुगनुओं के क़ाफ़िले हैं
शम्स से लड़ने की ज़िद पर सब अड़े हैं

बोलता है दंभ कर जब उनका भी सर चढ़
आग में अपनी वो ख़ुद अक्सर जले हैं

मैं तेरे ईसार में भीगा हुआ हूँ
मेरे तहख़ाने यूँ दौलत से भरे हैं

चल नहीं सकते हैं हम तेरे मुताबिक़
फिर भी हमने कर लिए कुछ हौसले हैं

बद्दुआ जैसा ही है ये मुफ़लिसी पर
आँकड़े आकाश को सब छू रहे हैं

है सियासत किस क़दर मदहोश ख़़ुद में
तथ्यों से अंजाम के क्या फ़ासले हैं


तेरे ही प्रश्नों को लेकर वो व्यथित, सब मौत का तेरे ही सामां ढूँढ़्ते हैं

इश्क़ का अंजाम चाहे कुछ ‘शलभ‘ हो हम तेरे जल्वों में जन्नत चाहते हैं