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जगमोहिनी उवाच / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास

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1.
दर्पण को धूर्त कहती हूँ
डाकिनी पिशाची कहकर गाली देती हूँ शृंगार करती हुई स्त्री को
नखिनी दंतिनी उस विकृत बिम्ब को
अस्वीकार करती हूँ :
मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ ।

उभर आता है क्षय-चित्र :
लहरें वलयित होती हैं कटि-देश में, फेन स्फटिकित
अतलान्त गहरे में लटकते हुए
जल-जन्तु जल-गुल्मों की चुभन खाते-खाते
छटपटाते हैं पैर की उँगलियाँ, घुटने और उरु
छटपटाते हैं कमर और नाभि-क्षेत्र
हैं क्रम-विगलित...
नारी प्रवाहित होने से तरल इतिहास !

2.

उत्तर दिशा उड़ आती है दक्षिण-मुख
दक्षिण दिशा उत्तर की ओर;
तन की परिधि रेखा पर मेरी
सँकरी तट-धार हुए
कृतार्थ मानने ।

श्रावण की कलकलाती अन्ध झरों की तरह
मेरे भीतर धँसकर
लापता होते हैं सेना, सानु, साम्राज्य...
हृदय-पीठ बन जाता है यूप (बलि का खम्भा)
किसी के गुँजरित मन्त्रपाठ, फिर
किसी के एकान्त आर्ष नीरवता को
ग्रास कर जाता है मेरे स्वार्थ का
घनाघन यामघोष ।
एकदा छुआ नहीं जाता
सुदूर सीमान्त का वही उद्धत गम्भीर शैल
लुढ़कता-लुढ़कता घिसता हुआ प्रवाह का शीतल स्पर्श से
मेरी मुट्ठी के भीतर
दयनीय भंगुर एक कंकड़ !
चुटकी में मृदु चाप से चूर कर दूँ उसे या
अप्रमित अनुकम्पा से मुट्ठी खोलकर
फेंक दूँ दूर तट-धार?

प्लावित हो जाऊँगी प्लावित कर दूँगी सारे दिगन्त को
उच्चता की उच्चता को पदाघात करूँगी
समुद्र पर नहीं, मेरा
मन होता है आकाश पर आज।

3.

जाग उठी है मन में मेरी
आकाश की वांछा जाग उठी है,
अस्थिर लगता है इधर
विकराल बिम्ब लिए दर्पण के असंख्य टुकड़े
आँखों के सामने नाच उठते हैं ।

अश्रु घर्म शोणित सुरा के चौतग्गे के बीच-धार में
कितने निश्चिन्त कितने स्वच्छ रहकर
तैरता जा रहा है कयेक विलिता का पथ : यह बुलबुला
दिखा क्यों नहीं देता मुझे जगमोहिनी रूप मेरा
बिम्बित क्यों नहीं कर रहा अपनी छाती में ―
एक बार, बस एक बार ?

ना इतिहास में ना भूगोल में
कभी ऊर्ध्व में गई है नदी !
फिर भी मन में मेरी
आकाश की वांछा जाग उठी है, जाग उठी है...
महा-दम्भ से फूलकर
ज्वार बनकर मेरे उठते समय ―
ऊपर से पूरा आकाश मानो
संकुचित क्षीण होकर
लहलहाता नीले सर्प की भाँति
मेरे कठिन स्तनाग्र पर उतर रहा हो...

ओह कैसी अमृत-ज्वाला
सता रही है, सता रही है...

त्रैलोक्य का भावानुकीर्तन
मेरे भीतर गुंजरित हो रहा है...

मूल ओड़िया से अनुवाद : संविद कुमार दास