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जगरातें / विमलेश शर्मा

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रतजगें थी स्मृतियाँ
और चित्रमयी लिपियाँ
इंतज़ार!

आस ख़्वाब बुने
काजल आँखों ने
चाँद-सूरज,सगुन पाखी

मन जलता रहा
तन सुलगता रहा
फ़िर भी कोई जाने क्यूँ

धूप-खुशबू बन महकता रहा!