भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जगीरो / कुमार विकल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पाँच लिटर केरोसीन के लिए

पाँच दिन से चक्कर लगाती जगीरो,

इस लम्बी क़तार में खड़ी

कुछ इस तरह से झुक रही है

कि लगता है वह ताक़त

जिससे वह एक भेड़िया-दुनिया के ख़िलाफ़

ज़िन्दगी भर लड़ी है,

आज चुक रही है।


उसकी नज़र क़तार की लंबाई पर नहीं है,

उसकी आंखों में एक स्टोव जल रहा है,

स्टोव पर पतीले में चावल उबल रहा है…

… बड़ा चीखता है,

“फिर वही उबला चावल बन रहा है?

आज तो हम चावल के साथ दाल भी खाएंगे

वरना हम स्कूल नहीं जाएंगे।”


जगीरो कहती है,

“तू रोज़—रोज़ क्या बकता है?

वही खाना होगा जो घर में पकता है,

हाँ, आज तेरे लिए मटर —पुलाव बनाती हूँ!

दाल को देसी घी का तड़का लगाती हूँ!

बापू से क्यों नहीं कहते हो?

मुझे ही क्यों नोचते रहते हो?

जगीरो आस—्पास चिलोकती है

सब की नज़र बचाकर आँख पोंछती है।


‘नोंचना’ जगीरो के लिए एक मात्र शब्द नहीं—

उसकी व्यथा गाथा का मर्म भाव है,

उसकी ज़िन्दगी का सबसे गहरा घाव है

जिसे उसने भेड़िये से लेकर ख़रगोश तक पाया है

किंतु घर की बूढ़ी दीवार् तक छिपाया है।


इस वक़्त भी

वह घाव उसकी आँखों में नहीं है,

उसकी आँखों में सिर्फ़ एक स्टोव जल रहा है,

स्टोव पर चावल उबल रहा है…


…बड़े का बापू जल-भुन रहा है,जगीरो के लिए गालियाँ धुन रहा है,

“बिल्ली बूढ़ी हो हो जाती है,

छीछड़ों के ख़्वाब देखने देखने से बाज नहीं आती है—

रांड कहीं मटक रही होगी,

किसी से चटक रही होगी!

आज उसको ऐसा चटकाऊंगा,

हड्डिया तोड़ डालूंगा

माँस नोंच खाऊंगा…”


जगीरो के शरीर को झटका—सा लगता है

और आँखों में जलता स्टोव भभक कर बुझता है

स्टोव बहुत पुराना हो चुका है

न जाने उसका क्या खो चुका है—

वही है जो इसको जला

एक भेड़िये और चार ख़रगोशों का खाना बनाती है,


भेड़िया फिर भी गुर्राता है,

ख़रगोशों को डराता है

उसका माँस नोच—नोच खाता है।


भीड़ डिब्बा —दर—डिब्बा आगे सरकती है

लेकिन जगीरो अपनी जगह पर खड़ी रहती है,

आज घर नहीं जाएगी

स्टोव नहीं जलाएगी।


सहसा भीड़ में एक हलचल —सी होती है’

कतार से उखड़ी एक बच्ची रोती है—

उसका दिब्बा किसी ने उठा लिया है,

उसके भाई को पीट कर भगा दिया है।


जगीरो बच्ची को गोद में उठाती है,

उसको गालों को सहलाती है,

“सुन, छोटी जगीरो के दु:ख छोटे होते हैं,

बड़ी जगीरो के दु:ख बहुत—बहुत बड़े होते हैं।”


बच्ची की रोती आँखों में

एक चमक—सी कौंध जाती है

जब जगीरो मज़बूत हाथों से

अपने डिब्बे को आगे सरकाती है

और उसकी आँखों में

कई स्टोव एक साथ जल उठते हैं।