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जगी चेतना भेद खुले / पृथ्वी पाल रैणा
Kavita Kosh से
अहंकार में दम होता तो
सारा जग खा जाते
भय से हार गए सब वरना
रिश्ते कहां निभाते
प्रेम के बल पर ही होता है
जीवन का निपटारा
द्वेश और नफ़रत से जिसने
जग देखा सो हारा
रंग बिरंगा जीवन है
यह किसको नहीं लुभाता
जगी चेतना भेद खुले
सब बेमतलब हो जाता है
वर्षा की बूंदों से तन की तपिश
भले मिट जाए
मन में आग सुलग जाने पर
चैन कहां मिल पाता है
कुंठाएं और पीड़ाएं
जीवन को नरक बना देती हैं
प्रेम का हल्का सा आश्वासन
काम अजब कर जाता है