Last modified on 7 दिसम्बर 2010, at 22:01

जग का एक देखा तार / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

जग का एक देखा तार ।
कंठ अगणित, देह सप्तक,
मधुर-स्वर झंकार ।

बहु सुमन, बहुरंग, निर्मित एक सुन्दर हार;
एक ही कर से गुँथा, उर एक शोभा-भार ।
गंध-शत अरविंद-नंदन विश्व-वंदन-सार,
अखिल-उर-रंजन निरंजन एक अनिल उदार ।

सतत सत्य, अनादि निर्मल सकल सुख-विस्तार;
अयुत अधरों में सुसिंचित एक किंचित प्यार ।
तत्त्व-नभ-तम में सकल-भ्रम-शेष, श्रम-निस्तार,
अलक-मंदल में यथा मुख-चन्द्र निरलंकार ।