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जग की जननी नारी / शशि पुरवार
Kavita Kosh से
जग की जननी है नारी
विषम परिवेश में नहीं हारी
काली का धरा रूप, जब
संतान पे पड़ी विपदा भारी
सह लेती काटों का दर्द
पर हरा देता एक मर्द
क्यूँ रूह तक कांप जाती
अन्याय के खिलाफ
आवाज नहीं उठाती
ममता की ऐसी मूरत
पी कर दर्द हंसती सूरत
छलनी हो रहे आत्मा के तार
चित्कारता ह्रदय करे पुकार
आज नारी के अस्तित्व का सवाल
परिवर्तन के नाम उठा बबाल
वक़्त की है पुकार
नारी को भी मिले उसके अधिकार
कर्मण्यता, सहिष्णु, उदारचेता
है उसकी पहचान
स्वत्व से मिला सम्मान
जग की जननी है नारी
विषम परिवेश में नहीं हारी।