भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जग के दुख दैन्य शयन पर / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
जग के दुख-दैन्य-शयन पर
यह रुग्णा जीवन-बाला
रे कब से जाग रही, वह
आँसू की नीरव माला!
पीली पड़, निर्बल, कोमल,
कृश-देह-लता कुम्हलाई;
विवसना, लाज में लिपटी,
साँसों में शून्य समाई!
रे म्लान अंग, रँग, यौवन!
चिर-मूक, सजल, नत-चितवन!
जग के दुख से जर्जर-उर,
बस मृत्यु-शेष है जीवन!!
वह स्वर्ण-भोर को ठहरी
जग के ज्योतित आँगन पर,
तापसी विश्व की बाला
पाने नव-जीवन का वर!
रचनाकाल: फ़रवरी, १९३२