जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं / जयप्रकाश त्रिपाठी
जन-गण-मन के सारे रस्ते मेरे हैं।
जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं।
मैं समस्त सुबहों-शामों में शामिल हूँ,
मैं जन-मन के सँग्रामों में शामिल हूँ,
मैं तरु की पत्ती-पत्ती पर चहक रहा,
मैं रोटी की लौ में निश-दिन लहक रहा,
मैं जन के रँग में, मन की रँगोली में,
मैं बच्चे-बच्चे की मीठी बोली में,
आँखों के ये तारे रस्ते मेरे हैं।
इतने सृजन किए हैं जिनके हाथों ने,
इतने सुमन दिए हैं जिनके हाथों ने,
इतना ताप पिया है जिनके जीवन ने,
अपने आप जिया है जिनके जीवन ने,
जिनके आजू-बाजू पर्वत चलते हैं,
जिनकी चालों पर भूचाल मचलते हैं,
इनके प्यारे-प्यारे रस्ते मेरे हैं।
मैं इन रस्तों का मतवाला राही हूँ,
इन रस्तों का हिम्मत वाला राही हूँ,
युगों-युगों से थिरक रहा हूं यहाँ-वहाँ,
इन रस्तों के राहीजन हैं जहाँ-जहाँ,
मैं हूँ इनके शब्द-शब्द में महक रहा,
मैं इनकी मशाल में कब से धधक रहा,
ये सारे उजियारे रस्ते मेरे हैं।