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जग में शायदे कोय इन्सान छै अखनी / रामधारी सिंह 'काव्यतीर्थ'
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जग में शायदे कोय इन्सान छै अखनी
जन्नें देखोॅ तन्नें हैवान छै अखनी
जे लफंगा-उचक्का छै वें करै दंगा
सुनोॅ तेॅ लोग बेशी बैमान छै अखनी
बिहानै खाय छै तेॅ सांझकोॅ ठिकान नै
वैसने लोग बेशी परेशान छै अखनी
अगहन के महीना खेत सूखी रहलोॅ छै
किसान रोवै खाली खलिहान छै अखनी
दादा सब तेॅ टी. वी. नै देखलेॅ छेलै
देखै में व्यस्त बच्चा-जवान छै अखनी
कोसी तटबंध समय पर नै बाँधला सेॅ
जनता पर सरकार मेहरबान छै अखनी
‘राम’ प्रलयकाल फोॅल भोगी केॅ लोग सब
भेद भूली केॅ बनलोॅ इन्सान छै अखनी।