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जग रही दुनियाँ मगर कूचे में / रंजना वर्मा

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जग रही दुनियाँ मगर कूचे में वह सोया मिला
नाम मज़हब का लिया खुद को ख़ुदा कहता मिला

दास्ताने ज़िन्दगी तो कह नहीं पाया कोई
मंजिलें पायी नहीं हम को फ़क़त रस्ता मिला

थीं सुनहरी चाहतें हर सिम्त ही बिखरी मगर
ख़्वाब आंखों में सजा था जो वही टूटा मिला

चाहता है जो भी रब वह ही हुआ करता यहाँ
आज तक जो भी मिला उस से बहुत अच्छा मिला

सौंप दी थी रहबरी कुछ दिन की ख़ातिर ही जिसे
बन के मालिक आशियाने में वही रहता मिला

था भरोसा जान से बढ़ कर किया जिस शख्स का
मैं तो हूँ जिंदा वह मेरा मर्सिया पढ़ता मिला

जिंदगी ले कर बहारें आयी जब भी सामने
फूल मुझ को तो हरिक कोहरे में ही लिपटा मिला