भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जग रही दुनियाँ मगर कूचे में / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
जग रही दुनियाँ मगर कूचे में वह सोया मिला
नाम मज़हब का लिया खुद को ख़ुदा कहता मिला
दास्ताने ज़िन्दगी तो कह नहीं पाया कोई
मंजिलें पायी नहीं हम को फ़क़त रस्ता मिला
थीं सुनहरी चाहतें हर सिम्त ही बिखरी मगर
ख़्वाब आंखों में सजा था जो वही टूटा मिला
चाहता है जो भी रब वह ही हुआ करता यहाँ
आज तक जो भी मिला उस से बहुत अच्छा मिला
सौंप दी थी रहबरी कुछ दिन की ख़ातिर ही जिसे
बन के मालिक आशियाने में वही रहता मिला
था भरोसा जान से बढ़ कर किया जिस शख्स का
मैं तो हूँ जिंदा वह मेरा मर्सिया पढ़ता मिला
जिंदगी ले कर बहारें आयी जब भी सामने
फूल मुझ को तो हरिक कोहरे में ही लिपटा मिला