भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जड़ों से अपनी कट के रह गया हूँ / राम नाथ बेख़बर
Kavita Kosh से
जड़ों से अपनी कट के रह गया हूँ
मैं खुद में ही सिमट के रह गया हूँ।
भला कैसे भुला पाओगी मुझको
तेरे दिल से चिपट के रह गया हूँ।
नहीं कानों पे तेरे जूँ हैं रेंगे
मैं तेरा नाम रट के रह गया हूँ।
वही है अक्स फिर वैसी ही सूरत
हर इक दर्पण उलट के रह गया हूँ।
उधर आधी मेरी राधा हुई है
इधर आधा मैं घट के रह गया हूँ।
नहीं भूलूँगा तुझको बेख़बर मैं
तेरे ख्यालों से सट के रह गया हूँ।