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जड़ से उखड़ी हुई ये बस्तियाँ यायावर थीं / विजय किशोर मानव

जड़ से उखड़ी हुई ये बस्तियां यायावर थीं
जिनमें उम्मीद से झांका वहीं आंखें तर थीं

न कोई याद, न साया, कोई गुज़रा भी नहीं,
कोई आया नहीं, आवाज़ें वो आहट भर थीं

मैं नहीं ठहरा हादसे के बाद पल-भर भी,
चीख़ के बाद की ख़ामोशियां ऐसा डर थीं

दम लिया उसने हवेली के बुर्ज पर चढ़कर
जिसकी सांसें भरी बरसात का गिरता घर थीं

हम रहे पीछे, ये तक़दीर थी आगे-आगे,
भागती भीड़ें ये इंसान की फ़ितरत-भर भीं

मेरे हर ओर तमाशाई थे सहमे-सहमे
आनकी आंखें किसी जाबांज़ के पत्थर पर थीं