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जड़ / मिक्लोश रादनोती

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जड़ में ताक़त लहकती है
वह बारिश पीती है, तले की ज़मीन उसका खाना है
और उसके सपने बर्फ़ की तरह सफ़ेद हैं

धरती के नीचे से वह ऊपर फूटती है
ऊपर बढ़ती है, चालाक है यह जड़
इसका हाथ ठीक रस्सी की तरह है,

जड़ के हाथ पर कीड़ा सोया हुआ है
जड़ के पैर पर कीड़ा चिपका हुआ है
सारी दुनिया कीड़ों से सड़ रही है

लेकिन अन्दर जड़ ज़िन्दा है
उसे दुनिया की कोई चिंता नहीं है
सिर्फ़ उस डाल की है जिसे अब पत्तों ने ढक लिया है,

उस डाल से ही वह प्यार करती है और उसे ही पोसती है
उस तक बढ़िया स्वाद भेजती है
अच्छे, मीठे, आकाश-पके स्वाद

अब मैं ख़ुद एक जड़ हूँ
मेरा घर कीड़ों में है
वहीं मैं यह कविता बना रहा हूँ
कभी एक फूल था अब मैं जड़ हो गया हूँ
भारी और काली ज़मीन मेरे हाथ और पैर पर है
मेरी किस्मत ऐसी ही लिखी थी
और अब मेरे माथे पर आरे की आवाज़ है


रचनाकाल : 08 अगस्त 1944

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे