भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जतन / राजू सारसर ‘राज’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चांद रीं,
चानणी में
छात माथै बैठ’र
आ आपां
रळ’र करां
कोई नवों सिरजण
सायन्ती अर सदभव सारू
आं डर रा
सरणाटां में
मानां कोई हळगळ
नीं है बारै
अंतस री बळत।
डर’रै वातावरण में
पानकौ ई टूट’र
पडै़ रूंख सूं
तो धमाकौ सो होवै।
सुण’र पून री सरसराट
पसर जावै
आंख्यां री पूतळयां
डरतां रो सांस मुसै
सुरजी रा उजास मे
अैक ई डाळ
बैठ्या पांखी
नीं बंधा सकै धीजौ
जीभ जता सकै संवेदणा
जीभ सूक’र ताळवै सूं
चिप जावै।
बरसा मान लांबा खिण
कीकंर लंघै
मर-मर’र
‘‘क्फर्यू’’ लाग्यौडै दांई।
पण
आपां
उपजावां बिसवास
हिवडै़ री गै’राई सूं,
सांयन्ती रै
उण आणंद नै
हर खिण जीवै
धकै नीं
सबद गावै
थारी-म्हारी खिलखिळा’ट
तोड’र मून
लोगां नैं
हांसण रो
देवै अैक मोकौ
कोई नी देखै
डरूं फरूं मिरग ज्यूं
पै’रैदार रै
बूंटां री खट-खट।
आ, वो वातावरण सिरजां
आवण आळै
हर खिण रो
करां हरख-उमाव सूं
सुवागत
थारै साथै रळ’र
म्हूं कोरू
इण डायरी में
ओ चिताराम कै
डर रै मून सूं
सायन्ती री सरगम भली।
जिकी गूंजै
तो लोग गावण ढूकै
कागद-कलम लेखक री
त्रिवेणी बण
दुख निवारक, आणंद कारक
सैला अर भाला
तोपां बंदूकां रा मुडां
भर देवां बारूद री ठौड़
प्रेम रा फूल
राग रो रंग
बैर सबद
भेदण रो लेवां
संकळप
देख
हाजर है त्रिवेणी
पण कागद माथै
जिकौ चितराम बणै
वो सायन्ती होवणौ चाहिजै
हां, सायन्ती ई होवणौ चाहिजै !