भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जनखे / मृत्युंजय प्रभाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह जो दिख जाता है
किसी भी फुटपाथ
चौराहे पर
झपटकर हाथ बढ़ा देता है
तुम्हारे अंडकोश की ओर
मांगने खाने के लिए
वह बीच का आदमी कहा जाता है।

दोनों हाथों से थपकी देकर
ख़ूब ज़ोर से जो बजाता है ताली
हाय-हाय की आवाज़ लगाता हुआ
अपनी बेतरह फटी आवाज़ में
देता है दुआएँ-आशीष
करता है तुम्हारे मंगल की कामना
वह बीच का आदमी कहा जाता है।

पर जो दोनों हाथ फैलाकर
बटोरने में लगे हैं
देश और जनता का धन
खाकर भी डकार नहीं लेते
दुआएँ-आशीष तो छोड़
सामने की थाल से छीन लेना चाहते हैं
गरीबों के एक जून का भोजन भी
वह टॉप के आदमी हैं।


वह जो सिर्फ ऑफिस जाता
और आता भर है
कूट लेता है बंगला-गाड़ी
अगले सात पुश्त की सुरक्षा
और हर संवेदनशील मसले पर
चुप रह जाता है
बड़ा बाबू वह बड़ा आदमी है।

हर कदम संभलकर चलता
जैसे दूध का जला पीता है
मठ्ठा भी फूँक-फूँककर
हर बात पर झुकता
और कहता है ’जी सर‘

जिसकी हर चाल से आती है
साजिश की बू
वह कभी उभरते और कभी उभर चुके
देश की ताबीर है।

इस नपुंसक प्रगति
बिन रीढ़ विकास
और सद्भाव की लाश से तो
बेहतर हैं जनखे
जिन्होंने बरकरार रखी है अपनी पहचान
उपहासित होने की विडंबना के बाद भी।