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जनतंत्र और मैं / कुमार विकल
Kavita Kosh से
मैं भी कितना भोला हूँ कि हर पाँचवें साल
एक परची देकर बहला लिया जाता हूँ
और वह परची मेरे पाँव से दिल्ली पहुँच जाती है
जो कालान्तर में मुझसे बहुत दूर चली जाती है
और मैं पीछे—
मतदाताओं की सूची में केवल एक क्रम संख्या रह जाता हूँ
एक क्रम संख्या जो
तीस वर्ष बूढ़ी मंगल व्यवस्था की प्रतीक है
और मेरे उज्ज्वल भविष्य की सूचक
नहीं, मेरा किसी भविष्य में विश्वास नहीं
मैं आज जीना चाहता हूँ
एक ताज़ा डबल रोटी—
और अच्छी शराब पीना चाहता हूँ
शराब!
नशाबंदी के दौर में शराब की बातें
मेरी परची मेरे ख़िलाफ़ घोषणा करती है
मैं अनैतिक हूँ,देश-द्रोही हूँ.
मोहतरमा आप ठीक कहती हैं
आपकी घोषणा बड़ी वाजिब है
किंतु मेरी मजबूरी—
मैं आदमी बनकर जीना चाहता हूँ
न कि एक क्रम संख्या
और जो कुछ भी चाहता हूँ कल नहीं
आज पीना चाहता हूँ.