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जनतांत्रिक स्वप्न / संजीव कुमार

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वह आदमी
सपने में हँसता था
उसके सपने में था जनतंत्र
हँसता हुआ,
सभा में और राजपथ पर
शोर था हँसी का,
हँसी में डूबे हुए सपने में
हँसता था आदमी कि
हँसी के रुदन से भी नहीं टूटता
सपना,
खुशनसीब था वह आदमी
जो हँस सकता था जोर से
कभी न टूटने वाले सपने में।

वह आदमी
हँसता था सपने में
इसलिए कि हँसने के थे प्रस्ताव सपने में
जो उड़ते थे आसमान में,
और जिनको पकड़ने के लिए
भेजे गये थे उनसे भी हल्के विचार,
दोनो के साथ साथ उड़ने का दृश्य
उसे गुदगुदाता था, सहलाता था
उन्हें देखकर
हँसता था वह जोर से कि
मजेदार होगा विचारों और प्रस्तावों के
हल्केपन की तुलना का कथन भी,
और अगर हल्के हुए कहीं इसी तरह
आग्रह, सुझाव और परामर्श भी
तो भर जायेगा आसमान हलकी चीजों से,
छोड़नी पड़ेगी जगह
उड़ते हुए परिन्दों को,
मुफ्त में मिलेंगे पर
खुश होगी बच्ची उन्हें पाकर,
हँसेगी खिलखिलाकर,
सपने में गूंजती थी उसकी खिलखिलाहट
जिसे सुनकर
हँसता था आदमी सपने में।

सपने में हँसते हुए आदमी के सपने में
हँसी का बाहुल्य था,
हँसी में डूबा था उसका देश,
हँसी में दोहरे हुए जाते थे उसके लोग,
भरी हुई थी हँसी अंतरालों में हास्य के,
मसखरे थे चारों ओर हँसते हुये
जोकरों की टोपियों से झरते थे
हँसते हुये विचार,
हँसी के इस माहौल में डूबा हुआ
खुशमिजाज सा वह आदमी,
सपने में हँसता था बेतरह जोर से,
चौंक कर जाग नहीं पड़ता था।