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जनाज़ा धूम से उस आशिक़-ए-जाँ-बाज़ का निकले / रंजूर अज़ीमाबादी

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जनाज़ा धूम से उस आशिक़-ए-जाँ-बाज़ का निकले
तमाशे को अजब क्या वो बुत-ए-दम-बाज़ आ निकले

अगर दीवाना तेरा जानिब-ए-कोहसार जा निकले
क़ुबूर-ए-वामिक़-ओ-मजनूँ से शोर-ए-मरहबा निकले

अभी तिफ़्ली ही में वो बुत नमूना है क़यामत का
जवानी में नहीं मालूम क्या नाम-ए-ख़ुदा निकले

कहाँ वो सर्द-मेहरी थी कहाँ ये गर्म-जोशी है
अजब क्या इस करम में भी कोई तर्ज़-ए-जफ़ा निकले

मिरा अफ़्साना है मज्ज़बू की बड़ गर कोई ढूँढे
न ज़ाहिर हो ख़बर उस की न उस का मुब्तदा निकले

वो मेरे लाशे पर बोले नज़र यूँ फेर कर मुझ से
चले हूरों से तुम मिलने निहायत बेवफ़ा निकले

हमारा दिल हमारी आँख दोनों उन के मस्कन हैं
कभी इस घर में जा धमके कभी इस घर में आ निकले

पड़ा किस कशमकश में यार के घर रात मैं जा कर
न उठ कर मुद्दई जाए न मेरा मुद्दआ निकले

तड़पता हूँ बुझा दे प्यार मेरी आब-ए-ख़ंजर से
कि मेरे दिल से ऐ क़ातिल तिरे हक़ में दुआ निकले

दिखा कर ज़हर की शीशी कहा ‘रंजूर’ से उस ने
अजब क्या तेरी बीमारी की ये हकमी दवा निकले