जनिया, घूम रही हो कहाँ (कजरी) / ज्ञान प्रकाश सिंह
जनिया, घूम रही हो कहाँ कि पहिने पीत चुनरिया ना।
मनवा तड़प रहा है जैसे जल के बिना मछरिया ना।
सावन मास मेघ घिरि आये, रिम झिम परत फुहरिया,
नाले ताले सब उतराये, भर गई डगर डगरिया।
दसों दिशाएँ लोकित होतीं,जब जब बिजुरी चमके घन में,
जैसे पूर्ण चन्द्र में चमके, बाला तोर सजनिया ना।
जनिया, घूम रही हो कहाँ...
रात भये सखियाँ तरु नीचे, झूला झूलन आतीं,
मधुर कण्ठ से उच्च राग में, गीत कजरिया गातीं।
उनके स्वर लहरा लहरा कर, घर बाहर में यों छा जाते,
जैसे तेरा रूप छिटक कर, छाये भरी बजरिया ना।
जनिया, घूम रही हो कहाँ...
नभ में मेघ, ताल में पानी, खेतों में हरियाली छाई,
पर तेरे बिन सब कुछ मुझको, सूना सूना पड़े दिखाई।
तुम को छू कर आने वाली, मधुर सुवासित रूप गंध से,
सजनी तेरी याद दिलाये, शीतल मंद बयरिया ना।
जनिया, घूम रही हो कहाँ...