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जन्मभूमि / अजित कुमार
Kavita Kosh से
चीज़ें
अब
सिर्फ़ गुज़री हुई चीज़ों को
गुँजाकर
चुक जाती हैं ।
बातें
बस
एक लम्बे अतीत को दोहराती हैं ।
ऐसी ही शाम थी…
अक्तूबर का चाँद
ठीक इतना ही आधा था…
आपस के रंग में डूबे हुए दोस्त
धुँधले उस आधे को उजला करने में लगे थे…
आज वह कोशिश मटमैली हो चुकी है ।
पीछे
जलूस के छूट गए शब्द कुछ
शेष रह गए हैं ।
मँडराती है एक रुग्ण व्यक्ति की कराह ।
जहाँ मेरा जन्म हुआ,
वह देश तो ऐसा न था ।