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जन्म और मृत्यु / दीपक जायसवाल
Kavita Kosh से
हम हर वक़्त रिसते रहते हैं
जैसे रिसता है रक्त
जैसे रिसती है नदी
जैसे रिसता है रेत
हमारे भीतर हर वक्त
कुछ भरता रहता है
जैसे भरता है समुन्दर
जैसे भरता है घाव
जैसे आँखों में भरता है आँसू
जैसे बादल में भरता हो पानी
जैसे फसलें भरती हो दाने
जैसे ट्रेन भरती है पैसेंजर
हाँ यह सच है
हम वक़्त के साथ पीले होते जायेंगे
जैसे हर पतझर में हो जाते हैं पत्ते
हम डबडबाई आँखो से बह जायेंगे
जैसे बहता है आँसू
हम पकने के बाद
काट लिए जाएंगे
और ट्रेन हमें न चाहते हुए भी उतार देगी
अगले यात्रियों के लिए
लेकिन जन्म और मृत्यु
के बीच जो जीवन है
उसे हम भले जीत न सकते हों
पर जी सकते हैं