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जन्म / अमृता भारती

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मैं हरे पेड़ों के नीचे खड़ी थी
सिर पर पुआल ले कर
पेड़ मेरे नहीं थे
पर पुआल मेरी थी --
शीत के लम्बे मौसम में
मैं आग जला सकती थी
या
एक नर्म बिछौना बना सकती थी ।

जीवन की उर्वर भूमियों पर
लगातार
हरे बीज बोने के बाद
ये पेड़ मेरे नहीं थे
पर 'पशुशाला' की
माँद की
यह पुआल मेरी थी ।

मैंने
जन्म को
वरदान की तरह सँजोया था
और स्वर्गिक शब्द को
सत्य की तरह चलते हुए देखा था

असि-धार की तरह पैने
चमकते पथ पर ।