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जन का मौन: तंत्र की विफलता / पूनम चौधरी


सभ्यता का सबसे भयावह परिदृश्य है—
तंत्र का मुखर होना और जनता का मौन हो जाना।

व्यवस्था में सब है—
संविधान की प्रतियाँ,
चुनाव की तारीखें,
झंडे, गान, उत्सव, परेड—
किंतु समानता,
पारदर्शिता,
गरिमा और जवाबदेही —
विलुप्त है।

जनता के नाम पर शासन की घोषणा होती है,
पर जनता—
निर्णयों से दूर,
 प्रश्नों के साथ खड़ी रहती है,
और उत्तर
 नीतियों में नहीं मिलते।

संसद प्रतीक थी संवाद की—
अब वहाँ प्रश्नों से बचा जाता है।
शब्द आदर की भाषा नहीं,
संदेह के औजार बन गए हैं।

प्रतिनिधित्व अब उपस्थिति नहीं,
अनुमति का संकेत माना जाने लगा है।
जन की आकांक्षाएँ दस्तावेज़ों में सुरक्षित हैं—
लेकिन उनकी चीखें सुनने का सही समय नहीं आया है।

तर्क नीति का आधार नहीं रहे—
अब वे निष्ठा की परीक्षा की कसौटी बन चुके हैं।
मतभेद अब बन चुके हैं मनभेद।

कभी किसान धरती से उगाता था जीवन,
अब सड़कों पर धरना देकर
अपने हिस्से का न्याय माँगता है।

कभी छात्र ग्रंथों से दृष्टि पाते थे,
अब अनुच्छेदों में खोजते हैं अपने अधिकार।
राम ने त्याग दिया था अपना सुख
एक साधारण नागरिक की शंका पर,
लेकिन आज कोई भी प्रश्न
व्यक्तित्व पर आक्षेप बन जाता है।

कृष्ण ने युद्ध से पहले संवाद किया था,
अब निर्णय संवाद से पहले सुना दिया जाता है।

हमने कभी कहा था,
"हम भारत के लोग..."
आज वही ‘हम’
अक्सर ‘वे’ में बदल दिया जाता है।

सत्य अब संदर्भ से नहीं, सत्ता से तय होता है।
यदि वह समर्थन में बोले—
तो नीति बनता है।
यदि वह प्रश्न करे—
तो संदेह।

गणतंत्र दिवस पर झंडा लहराता है,
सड़कें सजती हैं—
पर वे सिर नहीं झुकाए जाते
जो सच बोलने का साहस करते हैं।

कविता अब सौंदर्य नहीं,
साक्ष्य बन गई है—
एक समय की कथा,
जिसे पाठ्यक्रम से हटाया जा चुका है।

और जब कोई कहे—
"अब सब ठीक है", या
"प्रश्न पूछने का समय नहीं है",
तो हमें कहना होगा—

जन का मौन,
तंत्र की विफलता है।

क्योंकि जब तक भूख नीति नहीं बनेगी,
न्याय सभी को समान रूप से नहीं मिलेगा,
और मौन को सम्मति समझा जाएगा—
तब तक लोकतंत्र
एक आयोजन होगा,
जिसमें जन की उपस्थिति सांकेतिक होगी।
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