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जन ज्वार / रजनी अनुरागी

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मिश्र के जन सैलाब के आगे
झुक गया हुस्नी मुबारक

चुप्पी बेबसी नहीं होती
नहीं होती चुप्पी बेबसी
उसके पीछे चलता है गहरा विचार मंथन
दिमाग की हांडी में पक जाते हैं जब विचार
बेख़ौफ़ उतरने लगती है
जनता तब सड़कों पर
और एक से लाख होने में देर नहीं लगती

आँखों से गुलामी का अंधेरा छँट जाता है
तनने लगती हैं मुट्ठियाँ और उठने लगते हैं हाथ
जनता जूझती है निराहार, निरस्त्र
सशस्त्र सैनाओं से

एक कठिन दौर से गुज़रते लोग
जल्दी ही जान जाते हैं
कि टालने से टलती नहीं चीजें
और बिगड़ जाती हैं

कितने ही हुस्नी मुबारक बैठे हैं
अल्जीरिया, सीरिया और लीबिया में
और हमारे आस-पास भी
हमारे दिलो-दिमाग़ पर कब्ज़ा किए
हमारे सब्र का इम्तेहान लेते
देखें कब ये बाँध टूटता है।

तहरीर चौक की जन क्रांति देती है सदेश
कि लोकतंत्र के नाम पर जो भी बन बैठेगा तनाशाह
ये मजबूत जनता उसे ऐसे ही कर देगी
 नेस्तोनाबूद