जबकि नारों में यहाँ हैं लाख उजियारे हुए/ द्विजेन्द्र 'द्विज'
जबकि नारों में यहाँ हैं लाख उजियारे हुए
क्यों अँधेरे ही मगर फिर आँख के तारे हुए
ज़ात,मज़हब,रंग,नस्लें और फ़िरक़े हो गया
आदमी था एक जिसके लाख बँटवारे हुए
लफ़्ज़, जिनका था हमारी ज़िंदगी से वास्ता
आपके होंठों पर आकर खोखले नारे हुए
थाम कर सच्चाई के तिनके हैं बैठीं झुग्गियाँ
झूठ की ईंटों से ऊँचे कितने चौबारे हुए
आप अंगारों को फूलों में बदल सकते नहीं
क्या करेंगे आप फिर जब फूल अंगारे हुए
आजकल अपने घरों में भी नहीं महफ़ूज़ हम
साज़िशें चौखट , दरो-दीवार हत्यारे हुए
सीख लेते हैं सलीबों पर लटकना ख़ुद-ब-ख़ुद
हों जहाँ भी लोग इतने ख़ौफ़ के मारे हुए
ज़िन्दगी जीना सिखाते हैं हमें जाँबाज़ वो
जो नहीं ख़ुद के मुख़ालिफ़ जंग में हारे हुए
यूँ नज़र आता 'द्विज' इनमें सुर न कोई ताल था
हाथ में आई कलम, जब लफ़्ज़ बंजारे हुए