जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ / मुकेश मानस
हवा में लहराता है आंचल तुम्हारा
और बसंती रंग बिखर जाता है
दिशाओं में
एक उदास सांझ के धुंधलाते अन्धेरे में
जगमगाने लगती हैं आंखें तुम्हारी
और न जाने कहाँ से आकर
बहने लगती है एक नदी
मेरे भीतर
तुम्हारा रूप,
तुम्हारा रंग
और तुम्हारा मन लेकर
जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ
एक शाम के धुँधलके में
एक सूनी उदास वीथी में
तुमने थाम लिया मेरा हाथ
और मेरी सूनी उजाड़ राहों में
खिलने लगा बसंत
और महकने लगी सारी धरती
आसमान पर छाने लगे रंग
और कोई मेरे भीतर से
मुझे पुकारने लगा
मैं बरसों पहले भुला दिये गये
अपने ही गीतों को गुनगुनाने लगा
बरसों पहले पीछे छूट गई
अपनी ही रौशनी में जगमगाने लगा।
जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ
इतिहास का कोई विरल क्षण था
जब आकाश से कोई तारा टूट रहा था
सांझ मिल रही थी रात्रि में
और किसी स्वप्न के यथार्थ होने की तरह
मिले थे हम तुम
जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ
मगर तुम्हें भूल जाने की
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद
ऐसा क्यों होता है?
कि जितना ही तुम्हें भूलने की कोशिश करता हूँ
उतना ही याद आने लगती हो तुम
उतना ही महसूस होता है मुझे
कि कहीं तुम मेरे मरुस्थल की नदी तो नहीं?
कहीं तुम मेरे पतझड़ का बसंत तो नहीं?
कहीं तुम मेरे भीतर की करुणा तो नहीं?
कहीं तुम मेरे भीतर का प्यार तो नहीं?
और अब
जबकि मैं तुम्हें भुला नहीं पाता हूँ
पर पूरी तरह जान भी तो नहीं पाता हूँ तुम्हें
जितना ही जानता जाता हूँ तुम्हें
उतना ही बढ़ता जाता है मेरे भीतर प्रेम
उतना ही घटता जाता है मेरे भीतर का मरुस्थल
उतनी ही बढ़ती जाती है मेरे भीतर करूणा
उतनी ही बढ़ती जातीं हैं मेरे भीतर सदिच्छाएं
2010 इस कविता में मौजूद आलोक श्रीवास्तव की दो कव्य पंक्तियों के लिए आभार