जबसे छूटा था राधे! / हनुमानप्रसाद पोद्दार
जबसे छूटा था राधे! वह मधुर तुम्हारा प्रिय संयोग।
तबसे व्याप रही थी दारुण व्यथा, बढ़ रहा मानस-रोग॥
नहीं चैन पड़ता पलभर था, नहीं सुहाता था कुछ और।
रहना नहीं चाहता था मन लवभर कभी दूसरी ठौर॥
प्रिये! तुम्हारी प्यारी स्मृतिसे भरा चिा मेरा भरपूर।
रोम-रोम खिल उठा अचानक, व्यथा हो गयी सारी दूर॥
मधुर तुम्हारा प्यारा विग्रह तुरत सटा आकर सब-अंग।
तिलभर पृथक् न रहा, बढ़ चला परम नवीन अतुल रस-रंग॥
कभी बड़ी व्याकुलता होती, फिर जब होता अमिलन-भान।
तुरत प्रकट होकर स्मृतिमें तुम करतीं सुखद स्पर्शका दान॥
तबसे कभी वियोग-मिलन होता, फिर कभी मिलन-सभोग।
रहती प्रिय अनुभूति बाह्य, अन्तर रहता नित रस-संयोग॥
इस प्रकार तुम राधे! मुझसे होती दूर न पलक कभी।
रहती सदा परिस्थिति अब मेरी रस-आनँदमयी सभी॥