भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जबसे मुझको तूने छुआ है / गौतम राजरिशी
Kavita Kosh से
जब से मुझको तू ने छुआ है
रातें पूनम दिन गिरुआ है
ऐसा इश्क़ का बीज पड़ा के
नस-नस में पनपा महुआ है
तू जो गया तो अहसासों का
मन अब इक खाली बटुआ है
टूटा है तो दर्द भी होगा
दिल क्या शीशम या सखुआ है ?
तेरे चेहरे की रंगत से
मेरा हर मौसम फगुआ है
फेर ली तुमने नज़रें जब से
बहने लगी तब से पछुआ है
हँस के तू ने देख लिया तो
जग ये सारा हँसता हुआ है
(वर्तमान साहित्य, अगस्त 2009)