भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जबीने-माह पर गेसू की लहर याद आती है/ विनय प्रजापति 'नज़र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


लेखन वर्ष: २००३/२०११

जबीने-माह<ref>चाँद के चेहरे पर</ref> पर गेसू<ref>ज़ुल्फ़</ref> की लहर याद आती है
वह गुलाबी ख़ुशरंग शामो-सहर<ref>शाम और सुबह</ref> याद आती है

जिसने हमें रंगे-ज़िन्दगी<ref>ज़िंदगी के रंग</ref> का दिवाना कर दिया
वो उसकी तेज़ क़ातिल तीरे-नज़र याद आती है

एक नीली शाल में लिपटी बैठी रहती थी जब तुम
वह सर्दियों की गुनगुनी दोपहर याद आती है

जिसे तुमने घर आके भी न पढ़ा मेरी आँखों में
आज वह फ़ुग़ाँ<ref>दर्द भरा रुदन</ref> वह आहे-कम-असर<ref>जिस आह का कोई असर न हो</ref> याद आती है

मुझपे बाइस<ref>कारण,वजह</ref> नहीं खुलता तुमसे बिछड़ जाने का
आज भी वह पहला प्यार वह उमर याद आती है

शब्दार्थ
<references/>