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जबीने-माह पर गेसू की लहर याद आती है/ विनय प्रजापति 'नज़र'
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लेखन वर्ष: २००३/२०११
जबीने-माह<ref>चाँद के चेहरे पर</ref> पर गेसू<ref>ज़ुल्फ़</ref> की लहर याद आती है
वह गुलाबी ख़ुशरंग शामो-सहर<ref>शाम और सुबह</ref> याद आती है
जिसने हमें रंगे-ज़िन्दगी<ref>ज़िंदगी के रंग</ref> का दिवाना कर दिया
वो उसकी तेज़ क़ातिल तीरे-नज़र याद आती है
एक नीली शाल में लिपटी बैठी रहती थी जब तुम
वह सर्दियों की गुनगुनी दोपहर याद आती है
जिसे तुमने घर आके भी न पढ़ा मेरी आँखों में
आज वह फ़ुग़ाँ<ref>दर्द भरा रुदन</ref> वह आहे-कम-असर<ref>जिस आह का कोई असर न हो</ref> याद आती है
मुझपे बाइस<ref>कारण,वजह</ref> नहीं खुलता तुमसे बिछड़ जाने का
आज भी वह पहला प्यार वह उमर याद आती है
शब्दार्थ
<references/>